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सावधान आपके प्रोफ़ाइल पर है पुलिस की नज़र!

by Prasad Krishna last modified Jul 31, 2013 04:10 AM
जन लोकपाल, दिल्ली रेप केस और बाबा रामदेव के आंदोलनों में उमड़ी भीड़ से घबराई सरकारी एजेंसियां अब सोशल मीडिया पर कड़ी नज़र रखने के लिए मैदान में उतरी हैं.

This blog post by Parul Aggarwal was published by BBC on July 18, 2013. Pranesh Prakash is quoted.


अपनी तरह के एक पहले मामले में मुंबई पुलिस ने क्लिक करें फ़ेसबुक-ट्विटर और दूसरे सोशल मीडिया पर आम लोगों की राय और उनकी भावनाओं पर निगरानी रखने की शुरुआत की है.

साइबर अपराधियों और इंटरनेट पर क्लिक करें गड़बड़ियां फैलाने वालों के अलावा अब पुलिस की नज़र उन लोगों पर भी रहेगी जो राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों पर सोशल मीडिया में जमकर बोलते हैं.

आम लोग बने मुसीबत?

पुलिस की मंशा है समय रहते ये जानना कि जनता किन मुद्दो पर लामबंद हो रही है और विरोध प्रदर्शनों के दौरान बड़े स्तर पर लोगों का रुझान किस तरफ़ है.

सोशल मीडिया मॉनिटरिंग का ये काम मार्च 2013 में शुरु किए गए मुंबई पुलिस के सोशल मीडिया लैब के ज़रिए किया जाएगा. मुंबई पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बीबीसी से हुई बातचीत में कहा, ''नौजवान आजकल फ़ेसबुक पर ख़ासे एक्टिव हैं, ये लोग नासमझ हैं और बात-बात पर उग्र हो जाते हैं. सोशल मीडिया लैब के ज़रिए हम ये देखते हैं कि कौन किस मुद्दे पर ज़्यादा से ज़्यादा लिख रहा है और किस तरह की प्रतिक्रिया दे रहा है.''

दिल्ली रेप केस हो या इस तरह के दूसरे पब्लिक मूवमेंट, पिछले दिनों ऐसे कई मामले हुए हैं जब पुलिस ये नहीं जान पाई कि लोग क्या सोच रहे हैं या कितनी हद तक और कितनी बड़ी संख्या में लामबंद हो रहे हैं. हमारा काम है सोशल मीडिया पर नज़र रखते हुए पुलिस को ये बताना कि लोग किन चीज़ों के बारे में बात कर रहे हैं किस तरह के मुद्दे ज़ोर पकड़ रहे हैं."
रजत गर्ग, सीईओ सोशलऐप्सएचक्यू

इस काम में पुलिस को तकनीकी मदद मिल रही है नैसकॉम और तकनीकी क्षेत्र की एक निजी कंपनी ‘सोशलऐप्सएचक्यू’ से.

सोशल मीडिया पर लामबंदी

सोशलऐप्सएचक्यू के सीईओ रजत गर्ग ने बीबीसी से हुई बातचीत में कहा, ''दिल्ली रेप केस हो या इस तरह के दूसरे पब्लिक मूवमेंट, पिछले दिनों ऐसे कई मामले हुए हैं जब पुलिस ये नहीं जान पाई कि लोग क्या सोच रहे हैं या कितनी हद तक और कितनी बड़ी संख्या में लामबंद हो रहे हैं. हमारा काम है सोशल मीडिया पर नज़र रखते हुए पुलिस को ये बताना कि लोग किन चीज़ों के बारे में बात कर रहे हैं किस तरह के मुद्दे ज़ोर पकड़ रहे हैं. ''

फ़ेसबुक-ट्विटर पर क्लिक करें निगरानी कोई नई बात नहीं लेकिन अब तक ये काम ज्यादातर मार्केटिंग कंपनियां ही करती आई हैं. लेकिन सोशलऐप्सएचक्यू जैसी कंपनियां जो कर रही हैं वो 'ओपन सोर्स इंटेलिजेंस' यानी सार्वजनिक स्रोतों से मिली संवेदनशील जानिकारियों को इकट्ठा करना है.

 

विशेष सॉफ्टवेयर्स की मदद

पारदर्शिता की कमी

ऐसे में सार्वजनिक मंच पर कई ऐसी जानकारियां उपलब्ध हो सकती हैं जो उन्हें पुलिस की आंख की किरकिरी बना दें.

साल 2012 में पूर्व शिवसेना प्रमुख बाला साहब ठाकरे की निधन के मौक़े पर बुलाए गए मुंबई बंद के ख़िलाफ़ फ़ेसबुक पर टिप्पणी करने वाली एक लड़की और उसकी पोस्ट को लाइक करने वाली उसकी दोस्त को रातोंरात गिरफ्तार कर लिया गया. पुलिस ने ये कार्रवाई एक स्थानीय शिवसेना नेता की शिकायत पर की थी.

कथित तौर पर संविधान का मज़ाक उड़ाने और अपनी वेबसाइट पर आपत्तिजनक सामग्री डालने को लेकर कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी को भी गिरफ्तार किया गया. मीडिया में हुए हंगामे के बाद सभी लोगों को छोड़ दिया गया लेकिन भारत में अब तक इस तरह के कई ऐसे मामले सामने आ चुके हैं.

सूचना प्रौद्योगिकी क़ानून की धारा 66 कहती है कि इस तरह की कार्रवाई बेहद संवेदनशील और राष्ट्रहित से जुड़े मामलों में ही की जानी चाहिए. हालांकि धारा 66 की आड़ में सरकार और नेताओं के ख़िलाफ़ बोलने वालों की गिरफ्तारी सरकार की मंशा पर कई सवाल खड़े करती है.

इंटरनेट से जुड़े मुद्दों पर काम करने वाली संस्थाएं मानती हैं कि भारत में इंटरनेट और आम लोगों पर निगरानी रखने के मामले में सरकार की ओर से पारदर्शिता की बेहद कमी है.

'दुरुपयोग की संभावना'

द सेंटर फ़ॉर इंटरनेट एंड सोसाएटी से जुड़े प्रनेश प्रकाश कहते हैं, ''भारत में सूचना प्रौद्योगिकी और इंटरनेट से जुड़े क़ानूनों को अगर पढ़ें तो समझ आता है कि वो कितने ख़राब तरीक़े से लिखे गए हैं. इन क़ानूनों में स्पष्टता और जवाबदेही की गुंजाइश न होने के कारण ही उनका इस्तेमाल तोड़-मरोड़ कर किया जाता है.''

सोशल मीडिया के ज़रिए इंटरनेट पर सार्वजनिक रुप से बहुत कुछ हो रहा है. कुच्छेक मामलों को छोड़कर चीन जैसे देशों के मुकाबले अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर भारत सरकार ने अबतक कोई दमनकारी नीति नहीं अपनाई है. लेकिन समस्या ये है कि तकनीक की मदद से अगर दिन-रात निगरानी होगी और जानकारियां सामने आएंगी तो उनके दुरुपयोग की संभावना बढ़ जाती है. "

प्रनेश कहते हैं, ''साल 2011 में सरकार ने केंद्रीय मंत्रालयों और विभागों के लिए सोशल मीडिया से जुड़े दिशा-निर्देश जारी किए. इसका मक़सद था सरकारी विभागों को ये बताना कि सोशल मीडिया पर आम लोगों से कैसे जुड़ें. यही वजह है कि जब सरकार और पुलिस से जुड़े विभागों ने सोशल मीडिया लैब बनाए तो ज्यादातर लोगों ने समझा कि इनका मक़सद जनता की निगरानी नहीं बल्कि आम लोगों से जुड़ना है.''

तो मुंबई पुलिस का ये क़दम क्या आम लोगों और मानवाधिकार संगठनों के लिए ख़तरे की घंटी है ?

प्रनेश कहते हैं, “सोशल मीडिया के ज़रिए इंटरनेट पर सार्वजनिक रुप से बहुत कुछ हो रहा है. कुछ एक मामलों को छोड़कर चीन जैसे देशों के मुक़ाबले अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर भारत सरकार ने अब तक कोई दमनकारी नीति नहीं अपनाई है. लेकिन समस्या ये है कि तकनीक की मदद से अगर दिन-रात निगरानी होगी और जानकारियां सामने आएंगी तो उनके दुरुपयोग की संभावना बढ़ जाती है.”

 


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